अमेरिका का ऐसा स्कूल जहां बच्चे बड़ों के साथ रहकर प्रकृति और पर्यावरण से जुडते हैं
- Seniors Adda
- Jun 30, 2024
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संस्मरण-2
हमारे देश के बच्चे गर्मियों की छुट्टियों में दादी-नानी के घर नहीं जाया करते थे। बच्चे गांव में जाकर नदी, पोखर, खेत, खलियान और पेड़-पौधों से जुड़त थे। समय के साथ दादी-नानी का घर भी बदल गया है। अब अधिकतर बच्चों के दादी-नानी घर भी शहरों में होते हैं। बच्चे नानी-दादी घर जाने के बजाए हिल्स स्टेशन पर छुट्टियां मनाने जाते हैं। यानी अब हम अपनी जड़ों से दूर होते जा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर अमेरिका जड़ों से जोड़ने के लिए नए प्रयास कर रहा है। यहां पर अरबन गार्डेन स्कूल खुले हैं। यहां हर साल हजारों बच्चे पर्यावरण और प्रकृति से जुड़ने आते हैं। हम अभी बोयजी में रुके हैं। बोयजी में एक स्कूल है। जहां बच्चे गर्मियों की छुट्टियां मनाने आते हैं। इस स्कूल का नाम है बोयजी अरबन गार्डेन स्कूल। एक महीने तक बच्चे इस स्कूल में रहते हैं। इस स्कूल की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां बच्चों को पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के चुनौतियों से लड़ने की सीख दी जाती है।

सुबह से लेकर शाम तक बच्चे खेल-खेल में वह सबकुछ सीखते हैं जिससे वह पर्यावरण के नजदीक आ सके। सुबह के समय जंगल की सैर होती है। इस सैर के बाद बच्चे जिन-जिन पौधों और जीव-जंतू को देखते हैं उसे स्कूल में आकर बोर्ड पर लिखते हैं। हर दिन नया चीज देखने और लिखने का अनुभव मिलता है। इन जीवों और पौधों के नाम के साथ बच्चों को इनके बारे में बताया जाता है। हम 29 जून को इस स्कूल में गए थे। हमने इस स्कूल में बच्चों को पेंटिंग, बागवानी, खाना बनाते हुए और इनोवटिव तरीके से खेलते हुए देखा। यहां लड़का हो या लड़की सभी को खाना बनाना सिखाया जाता है। बच्चे पौधों की नर्सरी लगाने में कृषि विशेषज्ञों की मदद करते हैं। इस स्कूल में हर साल लगभग 10 हजार बच्चे पर्यावरण से जुड़ने आते हैं। यह स्कूल सिर्फ बच्चों को पर्यावरण से नहीं जोड़ता है बल्कि यहां के मूल पशु-पंक्षी और पेड़-पौधों को संरक्षित भी करता है। फूटहिल्स स्पेश की सुप्रीडेंट लिजा डुपलेस बताती हैं कि स्कूल के माध्यम से 5500 एकड़ जमीन और 14 रिजर्व को संरक्षित किया जाता है।

सिमट रहा तरूमित्रा आश्रम अब सिर्फ प्रशिक्षण दे रहा
पटना में एक ऐसा स्कूल है तरूमित्रा आश्रम। लेकिन, पिछले दिनों में मैं तरूमित्रा आश्रम गई थी। आश्रम के बाहर जाकर समझ में नहीं आया कि किधर से प्रवेश करू। पूरे आश्रम में कंसट्रक्शन का काम चल रहा था। आधे भाग मे कोई दूसरा इंस्टीट्यूट खुल गया था। शहर के बीचोबीच बना यह आश्रम अब सिमट चुका है। यह आश्रम अब सिर्फ कार्यक्रमों के आयोजन और प्रशिक्षण के लिए रह गया है। यानी कमाई का एक जरिया बन गया है। स्कूली बच्चों को भी पर्यावरण से जोड़कर यह आश्रम जलवायु परिवर्तन के जोखिमों से बच्चों को जागरूक कर सकता है, लेकिन न तो काम करने वाले ऐसे फादर हैं और न विशेषज्ञ। अभी की स्थिति यह है कि बस खिंच रहा है। एक तरह से कहीए यह आश्रम क्रिशचन स्कूल के बच्चों के लिए आरक्षित दिखेगा। पहले यह आश्रम काफी सक्रिय रहता था, लेकिन पिछले कुछ सालों में स्थिति चिंताजनक हो गई है। मेरा कहना है ऐसे स्कूलों को होना बहुत जरूरी है। आज के बच्चे नीम और पीपल में अंतर नहीं समझते। धान-गेहूं की बात करनी ही बेकार है।
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